आज कल एक बाढ़ सी चल चुकी है। नेता लोग अब जनता के मंच पर नहीं बल्कि बड़े उद्योग घरानों के मंचो पर बोलते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान देखा जाता है। सही है देश कहीं तो तरक्की कर रहा है। लेकिन एक बात थोड़ी दिक्कत करती है कि जिस लोकतंत्र की बात हम करते हैं। संविधान के पुरोधा जो बातें भारत के लिए लिखकर गए और आज नेता उसपर अमल नहीं कर पा रहे हैं। जे पी के जमाने में, एक आंदोलन उठा था, वही चीज अन्ना के आंदोलन में दिखा। लेकिन समयकाल में वो भी नेपथ्य में चला गया है। अभी देश के दो बड़े नेता जो दो अलग पार्टियों से संबंध रखते हैं को सुन रहा था पिछले दिनों। दोनों नेता देश के प्रधानमंत्री बनने के काबिलियत रखते हैं। सबसे उम्मीदवार हैं। लेकिन एक बात कचोट गई। कि दोनों जनता के बीच नहीं जा रहे हैं। सिर्फ बड़े बड़े ऑडोटेरियम में एसी छत के नीचे, देश की दशा और दिशा तय करने में लगे हुए हैं। राहुल गांधी की CII में दी गई स्पीच देख रहा
था। एक बात साफ रही। पिछली बार जब वो संसद में बोले थे। तब उनके पास कलावती
थी। आज उनके पास एक शैलेश नाम का शख्स था । एक बात तो साफ है। राहुल की
स्पीच में कुछ खास हो ना हो। केस स्टडी होती ही है। पता नहीं कहां से ले
आते हैं। राहुल और मोदी में एक अंतर साफ दिखा। मोदी ने हाल ही में दिए गए
दिल्ली यूनिवर्सिटी में भाषण में अपनी योग्यताएं और कामयाबियां याद दिलाईं।
लेकिन राहुल सिर्फ अपनी यात्रा वृतांत बताने में व्यस्त दिखते हैं। वो
सिर्फ कमियों को गिनाते रहे। कहते रहे कि ये करना है वो करना है। लेकिन कुछ
बता नहीं पाए कि कैसे करना है। अब तक 9 सालों में क्या किया उनकी सरकार
ने। वो सिर्फ 5000 जनप्रतिनिधियों पर निशाना साधते रहे। कहते रहे कि ताकत
इनके हाथ निकल कर आम आदमी के पास पहुंचनी चाहिए। लेकिन वो तब चुप रहे जब आम
आदमी लोकपाल केलिए। दिल्ली की वीरांग्ना के लिए सड़कों पर था। वो तब चुप
रहे जब उनके सिपहसलार गृहमंत्री ये कहते फिरते रहे कि वो किसी भी ऐरे गैरे
से नहीं मिल सकते। वो तब भी चुप रहे जब बरेली में दंगे होते रहे। शांति
उन्होंने तब भी बनाए रखी जब संसद में महिला सुरक्षा बिल पास हो रहा था और
एफडीआई पर सभी दल आपस में जूतम पैजार कर रहे थे। क्या राहुल अब भी बोलेंगे
कि करना है। अगला आम चुनाव सामने है। पीएम पद के लिए उन्होंने सबको लताड़ा।
उनकी शादी की खबरों के लिए सबकी चुटकी ली। वो आलोचना करते हैं कि पीएम के
लिए कयास ना लगाए जाएं। लेकिन क्या वो ये नहीं बोल सकते थे कि भ्रष्टाचा के
मुद्दे पर उनकी क्या राय है। एक बात और साफ हो गई है। पहले के चुनाव लडे
जाते थे। आज के प्रायोजित होते हैं। पहले जनसभाओं को संबोधित किया जाता था।
बड़ी बड़ी रैलियां होती थी। बड़े नेताओं को सुनने के लिए जनता जुटती थी।
लेकिन आजकल औद्योगिक घराने के लोग जुटते हैं। लोकतंत्र अब उद्योगतंत्र बनता
जा रहा है। सोचिए समझिए और वोट कीजीए।
April 13, 2013
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