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Varanasi, UP, India
Working with an MNC called Network 18, some call it news channel(IBN7), but i call it दफ्तर, journalist by heart and soul, and i question everything..

August 28, 2010

अकबर इलाहाबादी के चंद नज्मों पर गौर फरमाएं

अफ़्सोस है

अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है

इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत
बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है


आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे

शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे

रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे

नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे

दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

आबे ज़मज़म से कहा मैंने

आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
क्यों तेरी तीनत में इतनी नातवानी आ गई?

वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा
बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

उससे तो इस सदी में

उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा

बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा


एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान

August 10, 2010

इन्तिसाब

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम
रेलवानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,
दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है---फैज अहमद फैज
इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है !
दोस्तो ! मैं किसे यह सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ ? !
...किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ !
...अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं !
दस्तो-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं !
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़,
आज सिज्दे वही आवारा हुए जाते हैं !
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मिटे और मेरा रहनुमा कोई नहीं !
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था :
कह दिया अक़्ल ने तंग आके-ख़ुदा कोई नहीं !
जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं !

लमहे भर को यह दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है !
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं !

जिन्दगी चलती रही काँटों पर अंगारों पर !
तब मिली इतनी हसीं इतनी सुबुक चाल तुझे !

दिल में फिर दर्द उठा

दिल में फिर दर्द उठा
फिर कोई भूली हुई याद
छेड़ती आई पुरानी बात
दिल को डंसने लगी गुज़री हुई जालीम रात
दिल में फिर दर्द उठा
फिर कोई भूली हुई याद बन के नश्तर
रंगे अहसास में उतरी ऐसे
मौत ने ले के मेरा नाम पुकारा जैसे--- मीना कुमारी

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