एक सांझ बरामदे की आराम कुर्सी पर
घर की वो यादें औऱ चाय की चुस्कियां
वो पिताजी के साथ कोर्स की बहस बाजी
वो मां की रसोई में तनातनी
दाल की पिट्ठी, जिसका स्वाद आज भी ताजा है
...हर वो बात आज याद आती है
वो हर शनिवार खिचड़ी के साथ बिताना
वो हर रविवार बहन को पूड़ियों पर सताना
कल यूंही बारादरी पर बैठे हुए
याद आ गई, वो लज्जतों की कहकही
कि आज कहां हैं हम
कि चंद पैसों के लिए
इस मौज से दूर हैं हम
ये चंद पैसों की मौज है
या फिर पेट पालने की जद्दोजहद
या फिर सिर्फ स्टेटस सिंबल
पता नहीं
पर हां वो बातें याद आती रहीं है
आती रहेंगी।
January 23, 2011
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